


महेश्वरी साड़िया अपनी विशिष्ट ज्यामितीय कशीदाकारी, आकर्षक रंग संयोजन औरपारंपरिक वैभव के कारण केवल महेश्वर नगर ही नहीं, बल्कि देश और विदेशोंमें भी अत्यंत प्रसिद्ध हैं। ये साड़ियां ना केवल एक परिधान हैं, बल्किसमृद्ध सांस्कृतिक विरासत और ऐतिहासिक परंपरा की प्रतीक भी हैं।
इतिहास की बुनाई में रची बसी महेश्वरी साड़ी
महेश्वरी साड़ियों का आरंभ देवी अहिल्याबाई होल्कर के शासनकाल सेजुड़ा है। 1767 में अहिल्याबाई ने हैदराबाद, मांड़व, गुजरात जैसे क्षेत्रोंसे कुशल करघा कारीगरों को महेश्वर बुलाया और यहां वस्त्र निर्माण कीपरंपरा को संरक्षित व प्रोत्साहित किया। उन कारीगरों द्वारा निर्मित सूतीसाड़ियां, पगड़ियां, साफे और अंगवस्त्रों ने महेश्वर को एक कारीगरी केंद्र में परिवर्तित कर दिया।
हथकरघा की परंपरा और तकनीकी विकास
महेश्वर में हथकरघा उद्योग एक प्राचीन और सशक्त परंपरा रही है। यहां के डबल बॉक्स करघे पर कार्य करने वाले सिद्धहस्त बुनकर अत्यंत कुशलता से काम करते हैं। वर्ष 1921 में तत्कालीन शासक श्रीमंत तुकोजीराव होलकर ने ''विविंग एंड डाइंग डेमोंस्ट्रेशन फैक्ट्री'' की स्थापना की, ताकि बुनकरों को तकनीकी प्रशिक्षण प्रदान किया जा सके। यह संस्थान आज "शासकीय हथकरघा महेश्वर" के नाम से जाना जाता है।
रेवा सोसायटी: पुनरुत्थान की कहानी
1978 में देवी अहिल्याबाई होल्कर के वंशज प्रिंस शिवाजीराव होल्कर वशालिनी देवी होल्कर ने "रेवा सोसायटी" की स्थापना कर महेश्वरी साड़ियों को एक नया स्वरूप दिया। इस संस्था ने सैकड़ों बुनकरों को प्रशिक्षित कर उन्हें रोजगार प्रदान किया और महेश्वरी हैंडलूम को वैश्विक मंच पर प्रतिष्ठित किया।
डिजाइनों में रचनात्मकता और नर्मदा की छाप
महेश्वरी साड़ियों की डिजाइनों में समयानुकूल परिवर्तन होते रहेहैं। घाटों, मंदिरों, किलों और नर्मदा की लहरों से प्रेरित कलाकृतियांसाड़ियों की बॉर्डर और पल्लू पर उकेरी जाती हैं। आज भी राष्ट्रीय पुरस्कारविजेता श्याम रंजन सेन गुप्ता जैसे डिजाइनर बुनकरों को नवीनतम डिजाइनों कीप्रेरणा देते रहते हैं।