होना वही है जो नियति को मंजूर है, जो विधाता ने लिख दिया है फिर कोई तर्क करके उसमें भला क्या घटाएगा बढ़ाएगा???
तुम्हें भविष्य में होने वाली लाभ की उम्मीद से बांध दिया जाए!
तुम्हें भूतकाल के संभावित उतार चढ़ावों से परिचित करा दिया जाए!
पर सवाल यह है कि इनसे होगा क्या???
वर्तमान में क्या बदला???
तात्कालिक क्या राहत मिली????
मानस में तुलसीदास जी ने लिखा;
होइहि सोइ जो राम रचि राखा।
को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
होना वही है जो नियति को मंजूर है, जो विधाता ने लिख दिया है फिर कोई तर्क करके उसमें भला क्या घटाएगा बढ़ाएगा???
लेकिन एक मार्ग भी सुझाया है कि अपना कर्म करो और प्रभु चरणों में, शिव भक्ति में लीन हो जाओ। कर्ता, क्रिया कर्म सब उसको समर्पित कर दो, तो वह परमपिता विधि का विधान भी बदल सकता है। शिव चाहें तो भाग्य का लिखा भी मिटा दें,
मानस में प्रसंग आया;
जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी।
भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी॥
शिव ऐसा इसलिए कर देते है कि वह अनादि है, अनंत है, अजन्मा है, निराकार है। शिव बहुत भोले भंडारी हैं, वीतराग हैं, बहुत दयालु हैं वह विधि का विधान बदल देते है। इसलिए शिव पुराण में भगवान शिव के लिए लिखा गया कि;
"शिव समान दाता नहीं विपद विदारणहार"
जब ऐसे औघड़दानी, ऐसे भोलेनाथ हैं हमारे परमपिता परमेश्वर है तो उनकी शरण से अतिरिक्त कहां गति!!!
हां अन्यान्य स्थानों पर जाकर, नाना प्रकार के धार्मिक उपायों से आपको लाभ इसलिए अनुभव नहीं होता है कि किसी धर्माचार्य, धर्मगुरु, कथावाचक की इसमें कोई दिव्यशक्ति है, मूलतः यह शक्ति है भगवद नाम संकीर्तन की, उनकी स्तुति की जो यदा कदा आप उन विविध उपायों के दौरान किसी के कहने से करने लगते हैं।
मानस में गोस्वामी जी ने पुनः लिखा कि भगवान के नाम की महिमा ऐसी है कि;
भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ।।
आप कैसे भी, जाने अनजाने, भाव से कुभाव से, स्वार्थ से लालच से, मजबूरी में, दबाब में या किसी भी कारण से भगवान का नाम भजते हैं, आपका मंगल होना सुनिश्चित है, दसों दिशाओं से आपका हित होना सुनिश्चित है।
जो परमपिता स्मरण करने मात्र से आपका दसों दिशाओं से मंगल करने को तत्पर है, फिर उस तक पहुंचने के लिए अन्य प्रयोजन महत्वहीन ही हैं। संतान और पिता के बीच में किसी मध्यस्थ के लिए कैसा स्थान??
तो आप जहां है, जिस हाल में हैं, पूरी श्रद्धा और विश्वास से उसका सुमिरन कीजिए, विश्वास कीजिए आनंद होगा, मंगल होगा जय जयकार होगी।
और हां राम और शिव में कोई भेद मत समझना क्योंकि जो राम को प्रिय है वो शिव को प्रिय है और जो शिव को प्रिय है वो राम को प्रिय है।
मानस में प्रसंग आया है कि भगवान शिव, माता उमा से कहते हैं;
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना।
बिनु हरि भजनु जगत सब सपना।।
बिना हरि भजन के जगत मिथ्या हैं एक स्वपन है यह शिव कह रहे हैं!
और मानस में एक और प्रसंग है जहां भगवान राम कहते है कि;
संकर प्रिय मम द्रोही, सिव द्रोही मम दास।
ते नर करहिं कलप भरि, घोर नरक महुँ बास।।
भगवान श्री रामचंद्र जी कहते हैं कि जिनको शिव जी प्रिय हैं, किंतु जो मुझसे विरोध रखते हैं, या जो शिव जी से विरोध रखते हैं और मेरी शरण आना चाहते हैं, वे मनुष्य एक कल्प तक घोर नरक में पड़े रहते हैं।
यहां कोई प्रतिस्पर्धा नहीं, किसी को भी भजो, कहीं भी सुमिरन करो, कैसे भी सुमिरन करो आनंद ही आनंद है, मंगल ही मंगल है क्योंकि वह तो "मंगल भवन अमंगल हारी" अर्थात मंगल देने वाले और अमंगल का नाश करने वाले है।
#नवीन_विचार
Written By- Navin Purohit
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