भारतीय जनमानस में संतों का स्थान अनादिकाल से अत्यंत विशेष रहा है। उन्हें केवल धर्मगुरु नहीं, बल्कि ईश्वरतुल्य मान्यता प्राप्त रही। संतों ने समय-समय पर समाज को दिशा दी और जब भी राष्ट्र पर संकट आया, अपने प्राणों की आहुति देने में भी वे पीछे नहीं हटे। संत का व्यक्तित्व उस विराट मौन सरिता की तरह है, जो निरंतर जीवन और जीव को पोषित करती है, स्वयं किसी सत्ता या प्रसिद्धि की इच्छा नहीं रखती।
भारतीय जनमानस में संतों का स्थान अनादिकाल से अत्यंत विशेष रहा है। उन्हें केवल धर्मगुरु नहीं, बल्कि ईश्वरतुल्य मान्यता प्राप्त रही। संतों ने समय-समय पर समाज को दिशा दी और जब भी राष्ट्र पर संकट आया, अपने प्राणों की आहुति देने में भी वे पीछे नहीं हटे। संत का व्यक्तित्व उस विराट मौन सरिता की तरह है, जो निरंतर जीवन और जीव को पोषित करती है, स्वयं किसी सत्ता या प्रसिद्धि की इच्छा नहीं रखती। उनका जीवन करुणा और चेतना से ओतप्रोत होता है।
लेकिन समय के साथ युग भी बदले, और संत भी बदलने लगे। यदि यह परिवर्तन केवल बाह्य हो, तो वह स्वाभाविक माना जा सकता है, पर जब संत का मूल स्वरूप ही विकृत होने लगे, तब वह चिंता का विषय बन जाता है। आज स्थिति इतनी बदल चुकी है कि संतों की प्रकृति ही परिवर्तित हो गई है। जो कभी सर्वस्व त्याग कर निर्विकार जीवन जीते थे, वे आज अपने साथ इतनी भारी पोटली लेकर चलते हैं कि उसे सुरक्षित रखने के लिए भव्य आश्रम और पांच सितारा सुविधाओं की आवश्यकता होने लगी है। साधक से संचालक बनते हुए, कब संत संस्था के प्रबंधक बन बैठे, स्वयं उन्हें भी शायद इसका भान नहीं रहा।
संतत्व का मूल अर्थ है — "स्व" तत्व का पूर्ण क्षय। यानी अपने अहंकार, इच्छा और पहचान का पूर्ण त्याग। सच्चा संत वही है जो अपने शरीर तक को अपना नहीं मानता। महर्षि दधीचि इसका उदाहरण हैं, जिन्होंने देवताओं के लिए अपने शरीर की अस्थियाँ तक दान कर दीं। भारत भूमि ऐसे असंख्य संतों के तप और त्याग से पावन रही है, जिनका वर्णन करना शब्दों के दायरे में संभव नहीं।
मुझे जिन गुरु की कृपा प्राप्त हुई, उनके पास केवल त्याग और तपस्या थी। उनका इतना विनम्र स्वभाव कि कोई उनके सांसारिक नाम तक को नहीं जानता। पूछने पर बस इतना कहते, "नाम में क्या रखा है? यदि जानना ही है, तो उस परम नाम को जानो जो सदा कल्याणकारी है।" मेरे लिए सच्चा संत वही है जो संचय प्रवृत्ति से कोसों दूर हो, सदा संतुष्ट रहे, भेदभाव रहित हो और सत्य के प्रति पूर्ण समर्पित हो। उसकी स्पष्टवादिता कठोरता नहीं, बल्कि सच्चाई लिए होती है। कभी उसकी बातों में रहस्य भी झलकता है, जो वास्तव में उसकी भोली भावनाओं का परिचायक है। उसकी अपनी मस्ती होती है, और उसी मस्ती के कारण ऐसा लगता है कि स्वयं सर्वशक्तिमान भी उसके इशारे पर नाचने को विवश हो जाए।
संत मौन में लीन रहता है, निजानंद में डूबा हुआ, लेकिन हर जीव में उस विराट सत्ता का बोध करता है। वह शंकर की भांति दूसरों के कष्टों के लिए विषपान को भी तत्पर रहता है। सच्चा संत न किसी प्रसिद्धि की चाह रखता है, न बाहरी पहचान की। उसके लिए कोई विशेष वेशभूषा आवश्यक नहीं, केवल सात्विक प्रवृत्ति और ईश्वर का चिंतन ही पर्याप्त है।
लेकिन अब नया युग आया है। नए जमाने के नए संतों का उदय हुआ है। धीरे-धीरे यह परंपरा इतनी बढ़ी कि "चमत्कारी संत" हर ओर नजर आने लगे। ये ऐसे संत हैं जो हर समस्या का समाधान लेकर प्रकट होते हैं। इनका इंद्रजाल और मायाजाल इतना जटिल और विशाल है कि उसे समझ पाना भी कठिन हो गया है। अब घास-फूस की कुटिया के स्थान पर फाइव स्टार आश्रम हैं, जहाँ विलासिता की हर सामग्री उपलब्ध है। कभी योग की दुकानें सजती हैं, तो कभी खुलेआम भोग परोसा जाता है। सब कुछ "आनंद धाम" के नाम पर।
मैं स्वयं इन तथाकथित महामानवों का स्वाभाविक आलोचक हूँ, इसलिए मेरी पटरी उनसे नहीं बैठ सकती। जब उदारीकरण का दौर आया, तो अधिकांश संतों ने समय की संभावनाएं भांप लीं। उनके निवेश प्रस्ताव इतने वृहद हो गए कि बड़े-बड़े कॉर्पोरेट संस्थान भी उनके आगे फीके लगने लगे। उनकी संपत्ति का कोई अंत नहीं। समाचार पत्रों में कभी विवाद, कभी गिरफ्तारी की खबरें आती रहती हैं।
रामदेव-पतंजलि-सुप्रीम कोर्ट, आसाराम – जेल, राम रहीम – बेल... धर्म का शोषण करने के लिए पूरी कैपिटलिस्ट संतों की फौज तैयार हो गई है। उनके कर्मों के मर्म से अब स्वयं भगवान ही धर्म को बचा सकता है।
ईमानदारी से कहूं, विकृत और आडंबरयुक्त धर्म से तो नास्तिकता ही बेहतर प्रतीत होती है। क्योंकि नास्तिक कम से कम स्वयं से तो ईमानदार होता है। मेरा मंतव्य बस इतना है कि परिष्कृत और शास्त्रसम्मत धर्म ही श्रेष्ठ हो सकता है। यदि सच्चा संत न मिले तो कोई बात नहीं, लेकिन यदि मिले तो केवल वही स्वीकार्य हो जो आध्यात्मिक रूप से पूर्ण हो, सत्य में स्थित हो, त्यागमयी हो।
जो स्वयं अंधकार में हो, वह प्रकाश का पथ नहीं दिखा सकता। जो लंगड़ा हो, वह दूसरों का भार नहीं ढो सकता। विकृत में परिष्कृत का बोध नहीं हो सकता। जिसके अंत:करण में अंधकार हो, वह ज्ञान का बोध क्या देगा?
यह केवल साधारण प्रश्न नहीं, यक्ष प्रश्न हैं। इन पर गहराई से चिंतन करना होगा और समाधान की दिशा में एक स्पष्ट कदम उठाना होगा। यदि समाज और राष्ट्र को सहेजना है, तो सच्चे संत को निष्ठा से प्रतिष्ठित करना होगा। केवल प्रतिष्ठा नहीं, उसकी नियमित वंदना और उपासना भी करनी होगी — वह भी अंतर के दीपक से।
क्योंकि बिना संत या गुरु के ईश्वर प्राप्ति संभव नहीं, और बिना ईश्वर के जीवन का कोई अर्थ नहीं। अब तो संत का केवल आसन ही शेष है, बाकी तो अधिकांश संत से महंत बन चुके हैं। चार्टर प्लेन में विचरण करते हैं, अंगरक्षकों की फौज के साथ, कुछ के पास महिला अंगरक्षक भी हैं।
स्वाभाविक है कि सवाल उठता है — जो स्वयं इतना असुरक्षित है, वह हमें क्या सुरक्षा देगा? वह समाज के लिए आदर्श बन पाएगा? वह मृत्यु जैसे गंभीर विषय पर तत्वबोध करवा सकेगा? क्या ईश्वर उसे प्रकट करेगा? उत्तर स्पष्ट है — नहीं।
अब हमें ध्रुव की तरह संकल्प लेना होगा — एक सच्चे संत के निर्माण का संकल्प। स्वयं को होम करना होगा, मानवता की रक्षा और धर्म की पुनर्स्थापना के लिए। अधिक संतों की आवश्यकता नहीं, जैसे आकाश में अनगिनत तारे हैं, लेकिन मार्गदर्शन करता है केवल ध्रुव तारा।
आइए, इस गूढ़ विषय पर गहन आत्ममंथन करें। शायद यही प्रयास समाधान की दिशा में पहला दीप बन जाए — भले मंज़िल अभी दूर हो।
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