शिव और सावन: सनातन धर्म में आत्मा और ब्रह्म का अभिन्न संगम
भारतीय सनातन परंपरा में शिव केवल एक देवता नहीं, बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्मांडीय चेतना के प्रतीक हैं। उन्हीं शिव से जुड़ा सावन मास, साधना, भक्ति और तात्त्विक चिंतन का विशेष समय माना जाता है। यह महीना जहां प्रकृति के जल चक्र से जुड़ा है, वहीं आत्मा और परमात्मा के गूढ़ संबंध को भी उद्घाटित करता है।
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Sanjay Purohit
Created AT: 11 जुलाई 2025
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भारतीय सनातन परंपरा में शिव केवल एक देवता नहीं, बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्मांडीय चेतना के प्रतीक हैं। उन्हीं शिव से जुड़ा सावन मास, साधना, भक्ति और तात्त्विक चिंतन का विशेष समय माना जाता है। यह महीना जहां प्रकृति के जल चक्र से जुड़ा है, वहीं आत्मा और परमात्मा के गूढ़ संबंध को भी उद्घाटित करता है।

सावन का महीना भारत में वर्षा ऋतु का समय होता है। वर्षा के जल से भूमि पर हरियाली छा जाती है, और इसी तरह, शिव की कृपा से साधक के भीतर भी चेतना का नव अंकुर फूटता है। यह महज एक ऋतु नहीं, बल्कि आंतरिक रूपांतरण का पर्व है।

शिव को 'आदि योगी' कहा जाता है—संपूर्ण योग और तत्त्वज्ञान के आदि स्रोत। शिव लय और सृजन के दोनों पक्षों के धारक हैं। सनातन धर्म में उन्हें 'संहारकर्ता' भी कहते हैं, लेकिन यह संहार बाह्य नहीं, बल्कि भीतर की विकृतियों का, अहंकार और अज्ञान का होता है। सावन के व्रत और शिव पूजन उसी भीतरी शुद्धि के साधन माने जाते हैं।

शिवलिंग का अभिषेक विशेष रूप से इस माह में किया जाता है। जल, दूध, घृत, शहद—इन सबका प्रयोग तात्त्विक दृष्टि से भी अर्थपूर्ण है। जल—शांति और जीवन का प्रतीक, दूध—पवित्रता का, घृत—आत्मिक तेज का, और शहद—मधुरता व संतुलन का। अभिषेक के समय 'ॐ नमः शिवाय' जैसे महामंत्र का जप साधक को 'आत्मा से शिवत्व' की ओर अग्रसर करता है।

फिलॉसफी की दृष्टि से देखें तो सनातन परंपरा शिव को 'निर्गुण-निराकार' और 'सगुण-साकार' दोनों रूपों में स्वीकारती है। शिवलिंग का गोलाकार स्वरूप इस शून्य और अनंत के दर्शन को दर्शाता है। सावन में विशेष रूप से कांवड़ यात्रा और जलाभिषेक की परंपरा भी इसी कारण स्थापित हुई है कि साधक अपनी इन्द्रियों और वासनाओं को वश में कर, तपस्या और भक्ति के मार्ग पर आगे बढ़े।

स्पिरिचुअल डेप्थ से कहा जाए तो, सावन का शिव पूजन केवल फल या वरदान प्राप्ति तक सीमित नहीं है। यह साधक के भीतर जाग्रति का समय है। यह महीना हमें यह स्मरण कराता है कि जिस तरह प्रकृति वर्षा से शुद्ध होती है, उसी तरह साधक भी भक्ति और ध्यान से अपने चित्त को निर्मल कर सकता है।

महाभारत और पुराणों में भी सावन माह का विशेष उल्लेख मिलता है। पौराणिक कथा के अनुसार, समुद्र मंथन में निकले विष को जब सभी देवता असमर्थ हो गए, तब शिव ने उसे ग्रहण कर संसार की रक्षा की। इसीलिए उन्हें 'नीलकंठ' भी कहा जाता है। यह कथा हमें यह सिखाती है कि त्याग, सेवा और आत्म संयम ही सच्चा शिवत्व है।

अंत में, सावन शिव साधना का माह केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि आत्मा के उत्थान और ब्रह्म के साक्षात्कार का अद्भुत अवसर है। जो भी साधक इस महीना एकाग्रता, संयम और श्रद्धा के साथ शिव का स्मरण करता है, उसे अंततः 'शिवोऽहम्' की अनुभूति होती है—अर्थात् "मैं ही शिव हूँ।"

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