भगवान परशुराम का जीवन दर्शन समाज के लिए प्रेरणास्रोत
हर साल वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को भगवान विष्णु के छठे अवतार भगवान परशुराम जी का जन्मोत्सव मनाया जाता है। इस साल यह 29 अप्रैल को मनाया जाएगा। पंचांग के अनुसार तृतीया तिथि 29 अप्रैल को सायं 5 बजकर 31 मिनट पर शुरू होगी और 30 अप्रैल को दोपहर 02 बजकर 12 मिनट पर समाप्त होगी।
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Sanjay Purohit
Created AT: 28 अप्रैल 2025
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हर साल वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को भगवान विष्णु के छठे अवतार भगवान परशुराम जी का जन्मोत्सव मनाया जाता है। इस साल यह 29 अप्रैल को मनाया जाएगा। पंचांग के अनुसार तृतीया तिथि 29 अप्रैल को सायं 5 बजकर 31 मिनट पर शुरू होगी और 30 अप्रैल को दोपहर 02 बजकर 12 मिनट पर समाप्त होगी। भगवान परशुराम का अवतार प्रदोष काल में हुआ है, इसलिए 29 अप्रैल को प्रदोष काल में भगवान परशुराम जन्मोत्सव मनाया जाएगा। अक्षय तृतीया का पर्व उदया तिथि में 30 अप्रैल को मनाया जाएगा।

भगवान परशुराम ने दिया एकता का सूत्र

भगवान परशुराम ने एकता का सूत्र संसार को दिया है। सभी जाति और समाजों में समरसता का संदेश दिया है।भारतीय वाङमय में सबसे दीर्घ जीवी चरित्र परशुराम जी का है। सतयुग के समापन से कलयुग के प्रारंभ तक उनका उल्लेख मिलता है। भगवान परशुराम जी के जन्म समय को सतयुग और त्रेता का संधिकाल माना जाता है।

भारतीय इतिहास में इतना दीर्घजीवी चरित्र किसी का नहीं है। वे हमेशा निर्णायक और नियामक शक्ति रहे। दुष्टों का दमन और सत-पुरूषों को संरक्षण उनके चरित्र की विशेषता है। उनका चरित्र अक्षय है, इसलिए उनकी जन्म तिथि वैशाख शुक्ल तृतीया को माना गया।


इस दिन का प्रत्येक पल, प्रत्येक क्षण शुभ मुहूर्त माना जाता है। विवाह के लिए या अन्य किसी शुभ कार्य के लिए अक्षय तृतीया के दिन अलग से मुहूर्त देखने की जरूरत नहीं है। उनके जीवन का समूचा अभियान, संस्कार, संगठन, शक्ति और समरसता के लिए समर्पित रहा है।


मानव जीवन को व्यवस्थित ढांचे में ढाला

भगवान परशुराम ने मानव जीवन को व्यवस्थित ढांचे में ढालने का महत्वपूर्ण कार्य किया। दक्षिण के क्षेत्र में जाकर वहां कमजोर समाज को एकत्रित कर समुद्र तटों को रहने योग्य बनाया। अगस्त ऋषि से समुद्र से पानी निकालने की विद्या सीख कर समुद्र के किनारों को रहने योग्य बनाया। एक बंदरगाह बनाने का भी प्रमाण परशुराम जी का मिलता है। वही परशुराम जी ने कैलाश मानसरोवर पहुंचकर स्थानीय लोगों के सहयोग से पर्वत का सीना काटकर ब्रह्म कुंड से पानी की धारा को नीचे लाये जो ब्रह्मपुत्र नदी कहलायी।

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