मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी साधना यही हो सकती है कि वह प्रकृति की गोद में सरल, शांत और निष्कलुष बने।
मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी साधना यही हो सकती है कि वह प्रकृति की गोद में सरल, शांत और निष्कलुष बने। जैसे बहती सरिता की मधुर ध्वनि और बच्चों की निर्मल मुस्कान, वैसे ही मनुष्य अपने अंतर्मन में केवल एक सत्य धारण करे—जीवन का उद्देश्य परमात्मा के निकट पहुँचना है। यही आत्मिक यात्रा साधना का सार बन जाती है।
प्रेम — साधना से भक्ति तक
जब प्रेम साधना का रूप लेता है तो वह पूजा बन जाता है। समर्पण के साथ यह बताना कठिन हो जाता है कि साधक कहाँ है और ईश्वर कहाँ—दोनों एकाकार से प्रतीत होते हैं। प्रेम की यही अनुभूति परमानंद का द्वार खोलती है। दर्शन का निष्कर्ष भी यही है कि आत्मा और परम सत्ता में कोई भेद नहीं—प्रेम ही दोनों के बीच सेतु है।
वासना बनाम प्रेम — आत्मिक उन्नयन का मार्ग
वासना सीमित, क्षणिक और देह तक बंधी है; जबकि प्रेम अनन्त, आत्मा तक व्याप्त और कालातीत है। वासना मनुष्य को ‘भोग’ तक ले जाती है, वहीं प्रेम उसे ‘योग’ की ओर उठाता है। जहाँ तन की चाह है वहाँ भोग है, पर जहाँ आत्मा की तृष्णा है वही प्रेम है—और वही सच्ची भक्ति का आधार बनता है।
दिव्य प्रेम का माधुर्य — राधा, कृष्ण और शिव–शक्ति
यही प्रेम राधा के माधुर्य में झलकता है, कृष्ण के रास में बहता है और शिव–शक्ति के मिलन में पूर्णता पाता है। अस्तित्व की संपूर्णता तब ही संभव है जब मनुष्य स्वयं को प्रेम में गलाकर ‘पूर्ण’ का अनुभव करे—और जीवन का लक्ष्य केवल ईश्वर को बना ले।
श्रद्धा — अनन्त की ओर जाने वाला पुल
आज का समाज शायद इस ढाई अक्षर के रहस्य को पूरी तरह न समझ सके, क्योंकि इसके लिए कबीर की वाणी, मीरा के आँसू और जयशंकर प्रसाद की “श्रद्धा” को हृदय में उतारना होगा। जब लेखन और चिंतन आत्मा को स्पर्श करने लगें, वही प्रेम है और वही श्रद्धा—जिसमें करुणा, ममता, अपनत्व और संपूर्ण समर्पण निहित है। दर्शन का अंतिम संदेश यही है—श्रद्धा ही शक्ति है, शक्ति ही भक्ति है—और यही पथ मनुष्य को अनन्त की ओर ले जाता है।
अंततः यही उद्घोष—
“नारायणी नमोस्तुते।”
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