


हमारी समृद्ध आध्यात्मिक विरासत में आर्ष ग्रंथों एवं दार्शनिक ग्रंथों के माध्यम से मनुष्य जीवन को आनंदमय बनाने के लिए अनेक प्रकार की पद्धतियों का वर्णन किया गया है। सभी क्रियाओं का मूल उद्देश्य मनुष्य के अंत:करण को सात्विकता प्रदान करना है, जिससे वह प्रभु-उपासना के पथ पर अग्रसर हो सके। मौन भी एक आंतरिक साधना है, जो मनुष्य को आध्यात्मिक पथ की ओर ले जाती है। मौन को हमारे दार्शनिक ग्रंथों में तप की श्रेणी में रखा गया है। इसका सामान्य अर्थ है ‘चुप रहना’, परंतु साधना के मार्ग पर मौन का अर्थ बहुत व्यापक माना गया है। वाणी को विराम देकर मन से निरंतर प्रभु का चिंतन-मनन करना ही सच्चा मौन-व्रत है।
मानव-मन को अत्यंत चंचल माना गया है। इसी मन को सभी विचारों से रोक लेना ही ‘महा मौन’ है। केवल दिखावे के लिए मौन धारण करना तथा मन से विषय-वासनाओं का चिंतन करते रहना — यह वास्तविक मौन नहीं है, और न ही ऐसे आडंबरयुक्त मौन से कोई सिद्धि प्राप्त होती है। ऐसे मनुष्य के संदर्भ में गीता के तीसरे अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा है कि ऐसे लोग ‘मिथ्याचार’ हैं।
मनुष्य के अंतर्मन में निरंतर वृत्तियों का झंझावात चलता रहता है। मन का वृत्तियों से शून्य हो जाना ही यथार्थ मौन का लक्षण है। हठयोग में इसे ‘उनमनी भाव’ कहा गया है। योग-दर्शन में बताया गया है कि मौन से ही आंतरिक शक्तियों का जागरण होता है। मौन के द्वारा एकाग्रता तथा स्मरण शक्ति में वृद्धि होती है। इससे इच्छा-शक्ति तथा मनोबल अत्यंत प्रभावशाली बनता है। हमारे ग्रंथों में मौन को अनेक गुणों से युक्त कल्पवृक्ष माना गया है। इसे साधना के बीज का निर्माण करने वाला कहा गया है। मौन के साथ यदि निराहार उपवास किया जाए तो वह और अधिक प्रभावशाली होता है। मौन मनुष्य की आंतरिक चेतना को सात्विकता प्रदान करता है। मौन से गंभीर प्रश्न व सिद्धांत अंत:प्रेरणा से सहजता से हल हो जाते हैं।
बड़े-बड़े ऋषियो के बारे में देखा गया है कि वे अपने मन को एकाग्र कर योग द्वारा नए सिद्धांतों की खोज करते हैं। हिमालय की कंदराओं में शांतचित्त होकर बैठे साधक, इसी मौन की शक्ति से परमात्मा के आनंद की अनुभूति करते हैं। मौन की साधना से वाक्-सिद्धि की भी प्राप्ति होती है। मौन चिंता, तनाव तथा मानसिक अशांति को दूर कर मानसिक पटल को पवित्र बना देता है।
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने भी मौन की महिमा बताते हुए गीता के दसवें अध्याय में कहा है कि मौन उनका प्रत्यक्ष ईश्वरीय रूप है। गीता के सत्रहवें अध्याय में भी मौन को मानसिक तप कहा गया है, अर्थात यह मौन-मन के माध्यम से किया जाने वाला पुरुषार्थ है। हमारे ग्रंथों में बताया गया है कि जल से शरीर की, विचार से मन की, दान देने से धन की, और सत्य बोलने से वाणी की जैसी शुद्धि होती है—उससे अधिक शुद्धि संपूर्ण शरीर की मौन-साधना से होती है।
यह पूर्णतः वैज्ञानिक है कि अत्यधिक और अर्थहीन वार्तालाप से हमारे शरीर की आंतरिक ऊर्जा की हानि होती है। इसी ऊर्जा को प्रत्येक व्यक्ति मौन के माध्यम से बचा सकता है तथा अपनी मानसिक भूमि को सात्विक बना सकता है।हम स्वयं, प्रतिदिन की जीवन-चर्या में, कुछ समय मौन रहकर अपनी आंतरिक शक्तियों को परिष्कृत कर सकते हैं और मौन की महिमा का अनुभव कर सकते हैं। ऋषि-मुनियों ने मौन को आनंद-प्राप्ति का प्रवेश-द्वार माना है। इससे चेतना की परतें खुल जाती हैं, जिससे साधक ध्यान की पराकाष्ठा को प्राप्त करता है।