हर साल जन्माष्टमी के अगले दिन यानी भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की नवमी तिथि पर देशभर में धूमधाम से दही हांडी का उत्सव मनाया जाता है। इस दिन कान्हा जी की मंदिरों के साथ-साथ हर गली-मोहल्ले में भी हांडी उत्सव का आयोजन किया जाता है। बता दें कि दही हांडी के इस खास त्योहार को महाराष्ट्र और गुजरात में बड़े पैमाने पर सेलिब्रेट किया जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इस पर्व को द्वापर युग से ही मनाया जा रहा है। क्या आपको पता है कि दही हांडी का उत्सव हर साल जन्माष्टमी के अगले दिन ही क्यों मनाया जाता है?
जनमाष्टमी के बाद क्यों मनाया जाता है ?
पौराणिक कथा के अनुसार, द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण छोटी उम्र में ही लोगों आसपास के घरों से माखन मिश्री को चुराकर अपने मित्रों में वितरण करके खाते थे। प्रभु की इस लीला से गोपियां परेशान काफी हों गईं थी। ऐसे में, गोपियों ने माखन की मटकी को ऊंचे स्थान पर लटकाना शुरु कर दिया, परंतु उनका यह प्रयास भी हर बार असफल ही रहा, क्योंकि इसके बाद भी भगवान श्रीकृष्ण अपने सखा के संग मटकी से मक्खन और दही चुराकर खा लिया करते थे। यही कारण है कि जन्माष्टमी के अगले दिन प्रभु की इस बाल लीला को दही हांडी के उत्सव के रूप में धूमधाम से मनाया जाता है।
मटके में क्या डाला जाता है ?
दही हांडी के उत्सव को मनाने के लिए सबसे पहले एक मटके को तैयार किया जाता है। इसके लिए बाजार से एक मिट्टी के मटके को लाकर इसे दूध, दही, मक्खन और कई अन्य दूध उत्पादों से भर दिया जाता है। फिर मिट्टी के इस हांडी को जमीन से कई मंजिल ऊपर रस्सी के सहारे लटका दिया जाता है।
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