कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्: जन्माष्टमी एक पर्व नहीं, आत्मचेतना का आह्वान
हर वर्ष भाद्रपद की कृष्ण अष्टमी की रात एक ऐसा दिव्य क्षण लेकर आती है, जब भारत की सांस्कृतिक आत्मा श्रीकृष्ण के रूप में पुनर्जन्म लेती है। यह केवल धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि उस चेतना का स्मरण है जो जीवन को शाश्वत दिशा देती है।
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Sanjay Purohit
Created AT: 11 अगस्त 2025
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हर वर्ष भाद्रपद की कृष्ण अष्टमी की रात एक ऐसा दिव्य क्षण लेकर आती है, जब भारत की सांस्कृतिक आत्मा श्रीकृष्ण के रूप में पुनर्जन्म लेती है। यह केवल धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि उस चेतना का स्मरण है जो जीवन को शाश्वत दिशा देती है। श्रीकृष्ण का जन्म कारागार में हुआ, पर उनका प्रभाव संपूर्ण विश्व की चेतना पर हुआ। वह बालक, जो जन्म लेते ही कंस के कारावास को तोड़कर गोकुल की गलियों में पहुंचा, वह ही आगे चलकर “जगद्गुरु” बना — गीता का वक्ता, धर्म का संरक्षक और प्रेम का परिपूर्ण स्वरूप।

कृष्ण: केवल अवतार नहीं, एक सम्पूर्ण जीवन-दर्शन

“कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्” — यह वाक्य केवल एक भक्ति-सूत्र नहीं, बल्कि एक सम्पूर्ण जीवन-दृष्टि है। श्रीकृष्ण केवल पूज्य नहीं, वे एक ऐसे गुरु हैं जो जीवन की हर उलझन का समाधान देते हैं। कुरुक्षेत्र में दिए गए उनके उपदेश महाभारत के युद्ध को तो दिशा देते ही हैं, साथ ही आज के मनुष्य के भीतर के संघर्षों को भी समाधान प्रदान करते हैं।

गीता के श्लोक आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उस समय थे। “कर्मण्येवाधिकारस्ते…” केवल कर्म की बात नहीं, यह उस मानसिक शांति की कुंजी है, जिसकी आज के युग में सबसे अधिक आवश्यकता है। कृष्ण का व्यक्तित्व युद्ध, प्रेम, राजनीति, नीति और योग — सबका समन्वय है।

एक सामाजिक सुधारक, जो सीमाओं को तोड़ता नहीं — उन्हें पुनर्परिभाषित करता है

श्रीकृष्ण की लीलाएं केवल आध्यात्मिक नहीं, सामाजिक क्रांति का भी माध्यम थीं। उन्होंने जाति-व्यवस्था को प्रेम और भक्ति से तोड़ा। विदुर के घर भोजन करके यह बताया कि सच्चा धर्म भाव में है, पद में नहीं। वे राधा और गोपियों के साथ रास रचाते हैं — जहाँ प्रेम, शरीर से उठकर भक्ति का रूप ले लेता है। यह समाज को सिखाता है कि ईश्वर के सामने कोई ऊँच-नीच नहीं।

महाभारत में द्रौपदी की अस्मिता रक्षा करते हुए वे नारी सम्मान के प्रतीक बनते हैं। शिशुपाल के सौ अपराध क्षमा करके वे सहिष्णुता की मर्यादा गढ़ते हैं। कृष्ण का सामाजिक दर्शन आज के भारत के लिए एक जरूरी संदेश है — धर्म का अर्थ मंदिर जाना नहीं, न्याय करना है।

जन्माष्टमी: उपवास से अधिक उपवास है यह — आत्मा की भूख का समाधान

जन्माष्टमी केवल माखन-मिश्री का प्रसाद, उपवास या झांकियों का आयोजन नहीं है। यह एक गहरे आत्मनिरीक्षण का पर्व है। क्या हम अपने भीतर श्रीकृष्ण को स्थान दे पा रहे हैं? क्या हमने जीवन के कुरुक्षेत्र में अपने भ्रम का त्याग किया है? क्या हम किसी अन्याय के विरुद्ध श्रीकृष्ण की तरह खड़े हो सकते हैं?

इस रात, जब भक्त कीर्तन कर रहे होते हैं और मंदिरों में जन्मोत्सव मनाया जा रहा होता है, तब भीतर की एक आवाज भी कहती है — "तू भी अर्जुन बन, अपने मोह को छोड़, अपने धर्म को पकड़।"

भारत की सांस्कृतिक चेतना में कृष्ण सर्वत्र व्याप्त हैं

भारत का कोई भूभाग ऐसा नहीं जहाँ श्रीकृष्ण की उपस्थिति न हो। ब्रज में रासलीला, गुजरात में गरबा, ओडिशा में जगन्नाथ रथयात्रा, असम का संकीर्तन या मणिपुर का रास — ये सब सिर्फ लोकनाट्य नहीं, कृष्ण के विराट व्यक्तित्व के जीवंत स्वरूप हैं।

साहित्य में सूरदास, रसखान, मीराबाई ने कृष्ण को जीया। संगीत में रागों को कृष्ण-भाव से सिंचा गया। चित्रकला से लेकर नृत्य तक, कृष्ण भारतीय संस्कृति के कण-कण में व्याप्त हैं। वे केवल पूजनीय नहीं — वे भारत की आत्मा हैं।

कृष्ण को पूजने से अधिक ज़रूरी है उन्हें जीना

आज जब भारत आधुनिकता की दौड़ में है, तो वह भीतर से खोखला होता जा रहा है। कृष्ण उस खोखलेपन को भरने वाले हैं — उनके उपदेश, उनकी लीलाएं और उनका जीवनदर्शन हमें फिर से पूर्णता की ओर ले जाता है।

इस जन्माष्टमी पर आवश्यकता है कि हम केवल झूले न सजाएं, बल्कि अपने हृदय को उनके लिए सजाएं।

केवल मंत्र न जपें, बल्कि उनके उपदेशों को अपने कर्म में जिएं।

केवल आरती न करें, बल्कि अपने भीतर के युद्ध में उन्हें सारथी बनाएं।


कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् — यह केवल श्लोक नहीं, एक जीवन-पथ है।

उन्हें जानना, जीवन को जानना है।

उन्हें अपनाना, आत्मा को मुक्त करना

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