


भारत जैसे पारंपरिक समाज में सेक्स को लेकर सदियों से मौन और वर्जनाओं की एक मोटी दीवार खड़ी रही है। लेकिन वर्तमान की युवा पीढ़ी इस दीवार को तोड़ती नजर आ रही है। वह अब इन विषयों पर न केवल सोच रही है, बल्कि खुलकर बोल भी रही है। शिक्षा, तकनीक, सोशल मीडिया और वैश्वीकरण के प्रभाव ने युवाओं की सोच को बदला है। वे अब सेक्स को अपराध या शर्म का विषय नहीं, बल्कि जैविक, भावनात्मक और व्यक्तिगत अधिकार के रूप में देखने लगे हैं। यह बदलाव आवश्यक और समयोचित है, लेकिन इसके साथ कई नकारात्मक प्रभाव और खतरे भी जुड़े हुए हैं, जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता।
इस सामाजिक परिवर्तन के सकारात्मक पहलुओं में प्रमुख रूप से यौन शिक्षा, आत्मचेतना, स्त्री अधिकारों की स्वीकार्यता और LGBTQ+ समुदाय के प्रति सहिष्णुता जैसे पहलू शामिल हैं। युवा अब अपने शरीर और अधिकारों को लेकर अधिक सजग हो गए हैं। वे सहमति को संबंधों की मूल शर्त मानते हैं और रिश्तों में खुलापन तथा सम्मान को प्राथमिकता देते हैं। लेकिन इसी के साथ एक ऐसी मानसिकता भी पनप रही है, जो कभी-कभी यौन स्वतंत्रता को उच्छृंखलता या दिखावे का साधन बना देती है।
एक गंभीर नकारात्मक पक्ष यह है कि इंटरनेट और सोशल मीडिया पर सेक्स से जुड़ी सामग्री भरपूर मात्रा में मौजूद है, परंतु उसमें अधिकांश जानकारी अपूर्ण, भ्रामक या अत्यंत अवास्तविक होती है। पोर्नोग्राफी की सहज उपलब्धता ने युवाओं की यौन कल्पनाओं को इस हद तक प्रभावित किया है कि वे वास्तविक संबंधों में भी उन्हीं मानकों और प्रदर्शन की अपेक्षा करते हैं। इससे न केवल आत्म-संदेह और हीन भावना जन्म लेती है, बल्कि कई बार रिश्तों में असंतुलन, अविश्वास और मानसिक तनाव उत्पन्न हो जाता है।
इसके अलावा, इस नई सोच के साथ जो 'कूल दिखने' या ‘फ्री माइंडेड’ कहलाने की होड़ चल रही है, वह कई युवाओं को बिना मानसिक तैयारी या भावनात्मक समझ के यौन संबंधों की ओर धकेल रही है। कई बार यह केवल सामाजिक दबाव या फैशन का हिस्सा बन जाता है – जिससे व्यक्ति बाद में पछतावे, ग्लानि या भावनात्मक चोट का शिकार होता है। कुछ मामलों में युवतियों को अनजाने में शोषण और धोखे का भी सामना करना पड़ता है, क्योंकि यौन स्वतंत्रता का लाभ कभी-कभी पुरुष मानसिकता अपनी सुविधा के अनुसार उठाती है।
एक और चिंताजनक पहलू यह है कि रिश्तों में स्थायित्व और गहराई की भावना कमजोर होती जा रही है। जब संबंध केवल शारीरिक जरूरतों के आधार पर बनते और बिगड़ते हैं, तो उनमें मानसिक और आत्मिक जुड़ाव का स्थान नहीं बचता। ऐसे रिश्तों के टूटने पर युवाओं को अकेलापन, अवसाद और आत्म-संदेह जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। यह भावनात्मक अस्थिरता उनके अध्ययन, करियर और पारिवारिक जीवन को भी प्रभावित करती है।
साइबर अपराध और प्राइवेसी का उल्लंघन भी यौन स्वतंत्रता के इस युग में बड़ा खतरा बनकर उभरा है। निजी तस्वीरों या वीडियो का दुरुपयोग, सोशल मीडिया पर ब्लैकमेलिंग, और ‘रीवेंज पॉर्न’ जैसे अपराध तेजी से बढ़ रहे हैं। कई बार युवा अपनी नासमझी या भावनात्मकता में अपनी सीमाएं लांघ बैठते हैं, जिसका गंभीर परिणाम उन्हें लंबे समय तक भुगतना पड़ता है।
अंततः यह भी देखा गया है कि इस युग में यौन पहचान और इच्छा को लेकर इतनी अधिक जानकारी और विविधता है कि कई युवा अपनी पहचान को लेकर भ्रमित भी हो जाते हैं। आत्मनिरीक्षण और अनुभव के अभाव में वे या तो स्वयं को दूसरों से तुलना कर कुंठित होते हैं या फिर समाज के दबाव में कोई गलत राह चुन लेते हैं।
इसलिए यह आवश्यक है कि युवा पीढ़ी यौन स्वतंत्रता को केवल अधिकार नहीं, बल्कि जिम्मेदारी और आत्म-विकास के एक साधन के रूप में देखे। उन्हें यह समझना होगा कि संयम और विवेक ही किसी भी स्वतंत्रता को सार्थक बनाते हैं। समाज, परिवार और शिक्षा तंत्र को भी चाहिए कि वे सेक्स जैसे विषयों पर खुला, संवेदनशील और वैज्ञानिक संवाद स्थापित करें, जिससे यह क्रांति केवल बाह्य व्यवहार की नकल न बनकर, आंतरिक परिपक्वता की दिशा में अग्रसर हो।
यौन वर्जनाओं का टूटना निश्चित रूप से सामाजिक उन्नति की ओर संकेत करता है, लेकिन अगर यह बिना दिशा, संतुलन और समझ के हो, तो यह अंधेरे में भटकते हुए दीपक की तरह हो सकता है – जिसमें रोशनी तो है, लेकिन राह स्पष्ट नहीं। इसलिए आज के युवा को ज़रूरत है आत्म-जागरूकता, भावनात्मक बुद्धिमत्ता और संतुलन की, जिससे यह परिवर्तन समाज के लिए दीर्घकालीन रूप से लाभकारी सिद्ध हो सके।