


भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या तक का समय पितृपक्ष के रूप में पूर्वजों को समर्पित है। यह अवसर केवल धार्मिक अनुष्ठान भर नहीं, बल्कि कृतज्ञता, श्रद्धा और मानवीय मूल्यों की अभिव्यक्ति है। भारतीय परंपरा के अनुसार मनुष्य पर तीन मुख्य ऋण माने गए हैं—देव-ऋण, ऋषि-ऋण और पितृ-ऋण। इनमें पितृ-ऋण का निर्वाह ‘श्राद्ध’ द्वारा किया जाता है। श्राद्ध का अर्थ है—श्रद्धा से किया गया अर्पण। यह कर्म हमें यह स्मरण कराता है कि हमारे जीवन की जड़ें हमारे पूर्वजों के तप, त्याग और संस्कारों से सींची गई हैं।
विष्णु पुराण के अनुसार, पितरों की मृत्यु तिथि पर श्रद्धाभाव से किया गया श्राद्ध केवल पितरों को ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण सृष्टि—देवगण, ऋषिगण, पशु-पक्षी, भूत-प्रेत और समस्त जगत को तृप्त करता है। यह संदेश देता है कि सच्ची श्रद्धा और प्रार्थना का प्रभाव व्यापक होता है। श्राद्ध का मूल्य भव्य आयोजन या दान-दक्षिणा में नहीं, बल्कि अंतःकरण की निर्मल भावना में है। यही कारण है कि जिनके पास साधन नहीं, वे भी एक मुट्ठी तिल-जल, गाय को चारा या केवल भक्ति-भाव से प्रणाम कर पितरों का स्मरण कर सकते हैं।
मानवता के दृष्टिकोण से भी यह पर्व अत्यंत महत्वपूर्ण है। श्राद्ध का वास्तविक तात्पर्य है—पोषण और संतोष। जैसे हम पितरों को तर्पण द्वारा तृप्त करने का प्रयास करते हैं, वैसे ही समाज में भूखे, असहाय और जरूरतमंद लोगों की सेवा भी हमारे कर्म का हिस्सा होनी चाहिए। किसी को अन्न देना, पक्षियों को दाना डालना, पशुओं के लिए चारा देना—ये सब कर्म पितृपक्ष की भावना को और भी व्यापक और मानवीय बनाते हैं।
पितृपक्ष हमें यह सिखाता है कि जीवन केवल अपने लिए नहीं, बल्कि दूसरों के लिए भी है। पूर्वजों का स्मरण करना उनके संस्कारों को आत्मसात करना है—करुणा, सहानुभूति, सेवा और त्याग को जीवन में उतारना है। यही सच्चा श्राद्ध और वास्तविक तर्पण है, जो न केवल पितरों को तृप्त करता है, बल्कि हमें भी आध्यात्मिक शांति और मानवीय संतोष प्रदान करता है।