सनातन संस्कृति में आषाढ़ महीने की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के पर्व के रूप में मनाया जाता है।
शुक्ल पक्ष की चांदनी रातों में विशेष प्रकार के सकारात्मक आध्यात्मिक स्पंदन होते हैं। धीरे-धीरे चन्द्रमा का आकार बढ़ता जाता है और शुक्ल पक्ष के अंतिम दिन यह अप्रतिम सौंदर्य लिये पूरे आकार में होता है। हिन्दू कैलेंडर में यह पूर्ण चंद्रमा की तिथि ही पूर्णिमा कहलाती है। सनातन धर्म में पूर्णिमा का धार्मिक महत्व तो है ही, परंतु इससे कहीं अधिक आध्यात्मिक महत्व है। चंद्रमा इस दिन अपनी दिव्य किरणों के माध्यम से पृथ्वी पर सकारात्मक ऊर्जा की वर्षा करता है। वर्ष भर में 12 पूर्णिमाएं होती हैं। हर पूर्णिमा का अलग-अलग धार्मिक आध्यात्मिक महत्व होता है। सनातन संस्कृति में आषाढ़ महीने की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के पर्व के रूप में मनाया जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान शिव ने पूर्णिमा के दिन ही स्वयं को आदि गुरु के रूप में रूपांतरित किया और अपने सात शिष्यों को गुरु शिष्य परंपरा से दीक्षित किया। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन ही वेदों के रचयिता महर्षि वेदव्यास का जन्म हुआ था। गुरु पूर्णिमा मनाने की परंपरा बौद्ध और जैन धर्म में भी है।
आत्मरूप में गुरु
एक शंका विचारणीय है कि गुरु के देह छोड़ने के बाद भी क्या वह मार्गदर्शन करते हैं। दरअसल, यह समझना जरूरी है कि गुरु आत्मरूप होते हैं, देह रूप नहीं। इसलिए गुरु-शिष्य संबंध भौतिक शरीर का संबंध नहीं होता। यह तो आत्मा का संबंध होता है। इस संबंध में श्री श्री परमहंस योगानंद जी कहते हैं—‘एक सच्चा गुरु सदैव जीवित रहता है, भले ही वह भौतिक शरीर में न हो। ईश्वर की सर्वव्यापकता और सर्वज्ञता से एकत्व के माध्यम से, एक सच्चा गुरु सदा शिष्य के प्रति जागरूक रहता है और निरंतर प्रेम और सुरक्षा के साथ उस पर दृष्टि रखता है।’
गुरुओं का तुलनात्मक मूल्यांकन
आत्मसाक्षात्कार के इच्छुक साधकों को अपने गुरु के चयन में अत्यंत सावधान रहना चाहिए। एक कहावत है—‘गुरु कीजै जान, पानी पीजै छान’। गुरु के चयन में पर्याप्त जानकारी हो क्योंकि शिष्य को अपना भाग्य अपने गुरु के हाथ में छोड़ देना होता है। जब एक बार अपने लिए गुरु नियत हो गया तो फिर गुरु के जीवन को नहीं कुरेदना चाहिए। इससे गुरु के प्रति श्रद्धा-भक्ति का अभाव होता है और शिष्य के साधन पथ से विचलित होने की संभावना रहती है। इस संदर्भ में परमहंस योगानन्द जी कहते हैं—‘अपनी आध्यात्मिक खोज की शुरुआत में विभिन्न आध्यात्मिक पथों एवं गुरुओं का तुलनात्मक मूल्यांकन करना बुद्धिमानी है। जब आपके लिए नियत सद्गुरु आपको मिल जाए, जिनकी शिक्षाएं आपको अपने ईश्वरीय लक्ष्य तक पहुंचा सकती हैं, तब आपकी वह व्यग्र खोज बंद हो जानी चाहिए।’
सच्चा गुरु कौन
गुरु केवल देह नहीं है, बल्कि वह अपने शिष्य को आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाने की दिव्य उपस्थिति है। भगवद्गीता में गुरु को ‘ज्ञानिनः तत्त्वदर्शिनः’ कहा गया है। जिसका अर्थ है वे जिन्हें परम पुरुषोत्तम का पूर्ण बोध हो। हिन्दू धर्म शास्त्रों में सच्चे गुरु की योग्यता को इस प्रकार बताया गया है—‘जो आसक्ति, भय और क्रोध से मुक्त है, जो सदैव संतुष्ट, आत्म-संयमी और शुद्ध है। जो सुख-दुःख से विचलित नहीं होता, जो सभी प्राणियों के प्रति निष्पक्ष है, जो सत्य-साधकों को उनकी जाति, रंग, वंश, पंथ, धर्म, राष्ट्रीयता से परे हटकर देखता है। सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, यश-अपयश में भी स्थिर रहता है, जो जीवन के उतार-चढ़ाव से प्रभावित नहीं होता।
गुरु पाने का सौभाग्य
वह सौभाग्यशाली हैं, जिन्हें गुरु मिल गए हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है—‘बिनु हरिकृपा मिलहि नहि संता’। अर्थात्ल हरिकृपा से ही संतों के दर्शन होते हैं। सच्चे साधकों को प्रभु कृपा से सद्गु रु मिल ही जाते हैं।’ गुरु प्राप्त शिष्यों को चाहिए कि गुरु पूर्णिमा के पर्व पर अपने गुरु के प्रति, श्रद्धा, कृतज्ञता और भक्ति प्रकट करें। उनका दिव्य आशीर्वाद लें। अपने गुरु के निर्देशों का पालन करने का संकल्प लें। गुरु से अपना दायित्व स्वीकार करने के लिए प्रार्थना करें। जिन्हें अभी तक गुरु नहीं मिले हैं, उन्हें आज के दिन आदि गुरु भगवान शिव या भगवान श्रीकृष्ण को गुरु मानकर गुरु पूर्णिमा का पर्व मनाना चाहिए।
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